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चीनी भी मनुष्य के रूप में हमारे भाई-बहन हैं, मैं उनके विरोधी नहीं- दलाई लामा

 तेनजिन ग्यात्सो (बौध्द धर्म के 14वे दलाई लामा) वो नाम जो आज विश्व के सर्वश्रेष्ठ धर्म गुरुओं में से एक है। जिसे 1989 का नोबेल विश्व शांति पुरस्कार दिया गया। जिसे जब चीन की सेना ने तिब्बत से खदेड़ा तो भारत ने शरण दी और 1959 के बाद से अब तक भारत में ही हैं। लामा आज बौद्ध धर्म के लिए ही नहीं वैश्विक गुरू के रूप में जाने जाते हैं। इन्हीं दलाई लामा का आज 84वां जन्मदिन है। जन्मदिन पर आज हम आपको दलाई लामा के अनछुए पहलुओं के बारे में बतांएगे।

सबसे पहले आप ये जान लीजिए कि दलाई लामा कोई नाम नहीं है, ये बोद्ध धर्म की उपाधि है। दलाई लामा बौद्ध धर्म में सबसे श्रेष्ठ और पवित्र मानी जाने वाली पदवी है जो किसी एक व्यक्ति को धर्म गुरू के रूप में दी जाती है। ‘दलाई’ का अर्थ होता है महासागर और ‘लामा’ का मतलब गुरू। एक दूसरे अर्थ में बौद्ध इन्हें ज्ञान के महासागर के रूप में भी देखते हैं। हिन्दू धर्म में जैसी अवतार परंपरा की मान्यता है वैसी ही बौद्ध धर्म में भी है। बौद्ध धर्म में दलाई लामा की जिसे उपाधि दी जाती है उसे अवलोकितेश्वर भगवान बुद्ध का अवतार माना जाता है। मान्यता है कि भगवान बुद्ध के बाद वर्तमान दलाई लामा चौहत्तरवें बुद्धावतार और चौदहवें ‘दलाई लामा’ हैं। प्रथम दलाई लामा का जन्म सन्‌ 1351 में हुआ था। तेरहवें दलाई लामा का निधन 1933 में हुआ और बाद में उनका पुनर्जन्म 6 जुलाई 1935 को तिब्बत के आमदो प्रांत के टेस्टसर में वर्तमान चौदहवें दलाई लामा के रूप में हुआ।

तिब्बत बौद्ध-धर्म कर्म-विपाक सिद्धांत को मानता है। सामान्य मनुष्यों को उनके इस जन्म के कर्मों के अनुसार ही मृत्यु के बाद दूसरा जन्म मिलता है। जो ‘दलाई लामा’ होते हैं वो अपने भावी जन्म के बारे में स्वेच्छा से निर्णय कर सकते हैं। वे लोक कल्याण के लिए जन्म लेते हैं। दलाई लामा के स्वर्गवास के लगभग दो साल के बाद इसकी खोज की जाती है कि स्वर्गवासी दलाई लामा का पुनर्जन्म कहाँ हुआ है। इसके लिए कुछ संकेत तो स्वयं दलाई लामा अपनी मृत्यु के पूर्व अपने सहयोगियों के देते हैं जिसके आधार पर दलाई लामा के नवातार की खोज की जाती है।

दलाई लामा तिब्बत के राष्ट्राध्यक्ष और आध्यात्मिक गुरू हैं। उनका जन्म 6 जुलाई 1934 को उत्तर-पूर्वी तिब्बत के ताकस्तेर क्षेत्र में रहने वाले ये ओमान परिवार में हुआ था। दो वर्ष की अवस्था में बालक ल्हामो धोण्डुप की पहचान 13 वें दलाई लामा थुबटेन ग्यात्सो के अवतार के रूप में की गई थी। इनकी शिक्षा छह वर्ष की अवस्था में प्रारंभ हुई। 23 साल की उम्र में वर्ष 1959 के वार्षिक मोनलम ;प्रार्थनाद्ध उत्सव के दौरान उन्होंने जोखांग मंदिर, ल्हासा में अपनी फाइनल परीक्षा दी। उन्होंने बाद में बौध दर्शन में पी. एच. डी. हासिल की। दलाई लामा जो तिब्बत में बौद्ध प्रचारक की भूमिका में पूरे विश्व में अपनी छवि बौद्ध धर्म गुरू के रूप में बना चुके थे, ये तिब्बत से सटे चीन को जब रास नहीं आया तो चीन ने अपनी सेनाओं द्वारा तिब्बती राष्ट्रीय आंदोलन को बेरहमी से कुचल दिया। और दलाई लामा को गिरफ्तार करन का आदेश दे दिया। मार्च 17, 1959. तिब्बत उबल रहा था। दलाई लामा और उनका परिवार- मां, एक बहन और दो भाई- अपने कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ भेस बदलकर भारत में शरण पाने के उद्देशय से चल दिए। जिसके बाद लामा को भारत ने शरण दी। इसके बाद से ही वह उत्तर भारत के शहर धर्मशाला में रह रहे हैं जो केंद्रीय तिब्बती प्रशासन का मुख्यालय है। तिब्बत पर चीन के हमले के बाद परमपावन दलाई लामा ने संयुक्त राष्ट्र से तिब्बत मुद्दे को सुलझाने की अपील की है।

दलाई लामा आज 84 साल के हो गए हैं उन्होंने हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में अपना जन्मदिन एक बड़ा केक काटकर मनाया और विश्व शांति के लिए प्रार्थना की। एक महान शांति पुरस्कार विजेता, दलाई लामा एकता और करुणा के अपने संदेशों के लिए जाने जाते हैं।दलाई लामा के कुछ संदेश जो इन्सान में मानवता और इन्सानियत के भावों को जगाते हैं उन्हें आपको भी जानना चाहिए :—

– हम सबको यह सीखने की जरूरत है कि हम न केवल अपने लिए कार्य करें बल्कि पूरे मानवता के लाभ के लिए कार्य करें।
– मेरा धर्म साधारण है, मेरा धर्म दयालुता है।
– अपने पर्यावरण की रक्षा हमें उसी तरह से करना चाहिए जैसा कि हम अपने घोड़ों की करते हैं। हम मनुष्य प्रकृति से ही जन्मे हैं इसलिए हमारा प्रकृति के खिलाफ जाने का कोई कारण नहीं बनता, इस कारण ही मैं कहता हूं कि पर्यावरण धर्म नीतिशास्त्रा या नैतिकता का मामला नहीं है। यह सब ऐसी विलासिताएं हैं जिनके बिना भी हम गुजर-बसर कर सकते हैं लेकिन यदि हम प्रकृति के खिलाफ जाते हैं तो हम जिंदा नहीं रह सकते।

– एक शरणार्थी के रूप में हम तिब्बती लोग भारत के लोगों के प्रति हमेशा कृतज्ञता महसूस करते हैं, न केवल इसलिए कि भारत ने तिब्बतियों की इस पीढ़ी को सहायता और शरण दिया है, बल्कि इसलिए भी कई पीढ़ियों से तिब्बतियों की रक्षा भारत ने की है। इसलिए हम हमेशा भारत के प्रति आभारी रहते हैं। यदि सांस्कृतिक नजरिए से देखा जाए तो हम भारतीय संस्कृति के अनुयायी हैं।

– हम चीनी लोगों या चीनी नेताओं के विरुद्ध नहीं हैं आखिर वे भी एक मनुष्य के रूप में हमारे भाई-बहन हैं। यदि उन्हें खुद निर्णय लेने की स्वतंत्रता होती तो वे खुद को इस प्रकार की विनाशक गतिविधि में नहीं लगाते या ऐसा कोई काम नहीं करते जिससे उनकी बदनामी होती हो। मैं उनके लिए करूणा की भावना रखता हूँ।


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